भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोहिं कछु हरि-रति की रति लागी / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:16, 25 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग हंस ध्वनि, तीन ताल 7.7.1974

मोहिं कछु हरि-रति की रति लागी।
और बात अब लगत न नीकी, प्रीति ईति जिय जागी॥
ग्यान-मान विसर्यौ जबसों तबसों उर भौ अनुरागी।
विषय-विकार मार की बाधा आपुहि मनसों भागी॥1॥
उर उमँग्यो कारुन्य कृपानिधि की सरनागति माँगी।
चरन-सरन करि वरन प्रानधन की रति में मति पागी॥2॥
जहाँ स्याम की छाँह वहाँ किमि आवै काम अभागी।
करुना के जल-थल में कैसे लगै विषय की आगी॥3॥
पै निज बलसों मिलत न यह पद, पचि-पचि मरहिं अभागी।
करहिं अहैतुकि कृपा कृपानिधि तबहि जगत यह आगी॥4॥
जब सब त्यागि होय करि हीको, चहै न और सुहागी<ref>सौभाग्य</ref>।
तब ही करि-करुनासों यह रस पावत कोउ बड़भागी॥5॥

शब्दार्थ
<references/>