दिल का जख्म / कृष्णभूषण बल / सुमन पोखरेल
किस हवा ने उडाया इस तरह
के सूखे पत्तों की तरह पानी पे तैर रहा हूँ।
जल्दबाजी का किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ।
छोटी-सी लहर भी बहा सकता है मुझे
कोई जाल चाहिए ही नहीं !
जो भी लगा सकेगा गर्दन पे काँटे मुझे
जाल चाहिए ही नहीं !
फिर भी साजिसों के काले हाथ
गर्दन मरोडने के लिए तैनात किए हुए हैं
फिर भी उन सभी का पहाड बना के सुरंग खोदने के लिए
कुछ नजरें उठी हुई हैं।
किस वसन्त पे पतझड़ बुलाकर
मुरझाए होंगे वे मेरे निर्दोष फूल
किस राह को भूल कर
चले होंगे वे मेरी उदास नज़रे !
जाने, और कितने दिन परदेश में जीना होगा इस तरह
पहाड़ से गिरा हुआ पत्थर ही होने पे भी
कहीं रुकने की कोई जगह होती शायद।
दिल ही तो है इन्सान का,
नाजुक है
इसे अब कहाँ ले जा कर रखना होगा?