भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह मन भयो विषय को चेरी / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:21, 9 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग नारायणी, झूमरा

यह मन भयो विषय को चेरो।
करि-करि जतन हार ही मानी, फिरत नाहिं यह मेरो फेरो॥
तुम ही कों मान्यौ निज सरबस, तुम ही में नित चहों बसेरो।
फिर काहे यह जात इतै-उत, वृथा आप ही करत बखेरो॥1॥
तुम सो दियो, लियो तुम हूँ, फिर काहे तुम इत करहु न डेरो।
जो तुम याहि न अपनावहुगे बनि है वृथा विषय को खेरो॥2॥
अपनी वस्तु लेहु मनमोहन! करहु आपु ही नित्य बसेरो।
जो यह मन हो भवन तिहारो तो फिर रहै न कोउ बखेरो॥3॥