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बाल काण्ड / भाग 6 / रामचंद्रिका / केशवदास

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 (दोहा) सीताजू रघुनाथ को, अमल कमल की माल।
पहिराई जनु सबन की हृदयावलि भूपाल।।121।।

चित्रपदा छंद

सीय जहीं पहिरायी। रामहि माल सुहायी।
दुंदुभि देव बजाये। फूल तहीं बरसाये।।122।।

बारात आगमन

(दोहा) पठई तबहीं लगन लिखि, अवधपुरी सब बात।
राजा दशरथ सुनतही, चाह्यो चली बरात।।123।।

मोटनक छंद

आये दशरथ बरात सजे। दिगपाल गयंदनि देखि लजे।
चारîों दल दूलह चारु बने। मोहे सुर औरनि कौन गनै।।124।।

तारक छंद

बनि चारि बरात चहूँ दिशि आयी।
नृप चारि चमू अगवान पठायी।।
जनु सागर को सरिता पगु धारी।
तिनके मिलबे कहँ बाहँ पसारी।।125।।
(दोहा) बारोठे (द्वारकोष्ठ को चार, द्वार पूजा।) को चार करि, कहि केशव, अनुरूप।
द्विज दूलह पहिराइयो, पहिराए सब भूप।।126।।

त्रिभंगी छंद

दशरत्थ सँघाती सकल बराती बनि बनि मंडप माहँ गये।
आकाश विलासी प्रभा प्रकाशी जलज गुच्छ जनु नखत नये।
अति सुंदर नारी सब सुखकारी मंगल गारी देने लगीं।
बाजे बहु बाजत जनु घन गाजत जहाँ तहाँ शुभ शोभ जगीं।।127।।
(दोहा) रामचंद्र सीता सहित, शोभत हैं तेहि ठौर।
सुबरणमय मणिमय खचित, शुभ सुंदर सिर मौर।।128।।

विवाह

षट्पद

बैठे मागध सूत विविध विद्याधर चारण।
केशवदास प्रसिद्ध सिद्ध शुभ अशुभनिवारण।
भरद्वाज जाबालि अत्रि गौतम कश्यप मुनि।
विश्वामित्र पवित्र चित्र मति वामदेव पुनि।
सब भाँति प्रतिष्ठित निष्ठमति तहँ वसिष्ठ पूजत कलश।
शुभ सतानंद मिलि उच्चरत शाखोच्चार सबै सरस।।129।।

अनुकूल छंद

पावक पूज्यो समिध सुधारी।
आहुति दीनी सब सुखकारी।
दै तब कन्या बहु धन दीन्हों।
भाँवरि पारि जगत यश लीन्हों।।130।।

स्वागता छंद

राजपुत्रिकनि सों छबि छाये। राज राज सब डेरहि आये।
हरि चीर गज वाजि लुटाये। सुंदरीन बहु मंगल गाये।।131।।

शिष्टाचार

(सोरठा) बासर चौथे याम, सतानंद आगू दिये।
दशरथ नृप के धाम, आये सकल विदेह बनि।।132।।
(दोहा) आगे ह्वै दशरथ लियो भूपति आवत देखि।
राजराज मिलि बैठियो, ब्रह्मब्रह्म ऋषि लेखि।।133।।

सवैया

जनक- सिद्ध समाज सबैं अजहूँ न कहूँ जग योगिन देखन पायी।
रुद्र के चित्त समुद्र बसै नित ब्रह्महु पै बरणी जो न जायी।
रूप न रंग न रखे विसेख अनादि अनंत जो वेदन गायी।
केवल गाधि के नंद हमें वह ज्योति सी मूरतिवंत देखायी।।134।।

तारक छंद

जिनके पुरिषा भुव गंगहि ल्याये।
नगरी शुभ स्वर्ग सदेह सिधाये।।
जिनके सुत पाहन ते तिय कीनी।
हर को धनुभंग भ्रमें पुर तीनी।।135।।
बिन आपु अदेव अनेक सँहारे।
सब काल पुरंदर के रखवारे।
जिनकी महिमाहि अनंत न पायो।
हम को बपुरा यरा वेदनि गायो।।136।।
बिनती करिए जन जो जिय लेखो।
दुख देख्यो ज्यों कल्हि त्यों आजहु देखो।
यह जानि हिये ढिठई मुख माषी।।
हम हैं चरणोदक के अभिलाषी।।137।।

तामरस छंद

जब ऋषिराज बिनय करि लीनों।
सुनि सब के करुणा रस भीनों।
दशरथ राय यहै जिय जानी।
यह वह एक भई रजधानी।।138।।

दशरथ (दोहा) हमको तुम से नृपति को, दासी दुर्लभ राज।
पुनि तुम दीनी कन्यका त्रिभुवन की सिरताज।।139।।

वसिष्ठ-
विजय छंद

एक सुखी यहि लोक बिलोकिए हैं वहि लोक निरै (निरय, नरक) पगु धारी।
एक इहाँ दुख देखत केशव होत वहाँ सुरलोक विहारी।
एक इहाँऊ उहाँ अति दीन सो देत दुहूँ दिशि के जन गारी।
एकहि भाँति सदा सब लोकनि है प्रभुता मिथिलेश तिहारी।।140।।

जाबालि-
ज्यों मणि में अति ज्योति हुती रवि से कुछ और महाछबि छायी।
चंद्रहि वंदत हैं सब केशव ईश ते वंदनता (वंदनीयता, वंदन किए जाने की योग्यता) अति पायी।।
भागीरथी हुतिय अति पावन बावन ते अति पावनतायी।
त्यों निमिवंश बड़ोई हुतो भइ सीय सँयोग बड़ोये बड़ाई।।141।।
(दोहा) पूजि राज ऋषि ब्रह्म ऋषि, दुंदुभि दीन्हि बजाइ।
जनक कनक-मंदिर गये, गुरु समेत सुख पाइ।।142।।

जेंवनार

चामर छंद

आसमुद्र के छितीश और जाति को गने।
राजमौन भोज को सबै जने गये बने।
भाँति भाँति अन्नपान व्यंजनादि जेंवहीं।
देत नारि गारि पूरि भूरि भूरि भेवहीं।।143।।

हरिगीत छंद

अब गारि (कहते हैं कि केशवदास के कहने से यह ‘गारी’ प्रवीण राय पातुरी ने बना दी थी) तुम कहँ देहिं हम कहि कहा दूलह रामजू।
कछु बाप प्रिय परदार सुनियत करी कहत कुबाम (बुरी स्त्री) जू।
को गनै कितने पुरुष कीन्हे कहत सब संसार जू।
सुनि कुँवर बचित दै बरणि ताको कहिय सब ब्योहार जू।।144।।
बहु रूप सों नवयोवना बहु रत्नमय बपु मानिए।
पुनि वसन रत्नाकर बन्यो अति चित्त चंचल जानिए।
सुभ सेष फन मनिमाल पलिका परति करति प्रबंध जू।
करि सीस पच्छिम, पाँय पूरब गात सहज सुगंध जू।।145।।