रावण प्रति महोदर का उपदेश
महोदर- कहै जो कोऊ हितवंत बानी।
कहौ सो तासौं अति दुःखदानी।।
गुनौ न दावै बहुधा कुदावै।
सुधी तबै साधत मौन भावैं।।58।।
कहौ सुकाचार्य्य सु हौं कहौं जू।
सदा तुम्हारौ हित संग्रहौं जू।।
नृपाल भू मैं विधि चारि जानौं।
सुनौ महाराज सबै बखानौं।।59।।
भुजंगप्रयात छंद
यहै लोक एकै सदा साधि जानै।
बली बेनु ज्यों आपुही ईस मानै।।
करैं साधना एक परलोकही कों।
हरिश्चंद्र जैसे गये दै मही कों।।60।।
दुहूँ लोक कों एक साधैं सयाने।
विदेहीन ज्यौं वेद बानी बखानै।।
नठैं (नष्ट करें) लोक दोऊ हठी एक ऐसे।
त्रिशंकै हँसैं ज्यौं भलेऊ अनैसे।।61।।
(दोहा) चहूँ राज को मैं कहूँ, तुमसों राजचरित्र।
रुचै सो कीजै चित्त मैं, चिंतहु मित्र अमित्र।।62।।
चारि भाँति मंत्री कहे, चारि भाँति के मंत्र।
मोहिं सुनायो सुक्रजू, सोधि सोधि सब तंत्र।।63।।
छप्पै
एक राज के काज हतैं निज कारज काजे।
जैसे सुरथ निकारि सबै मंत्री सुख साजे।।
एक राज के काज आपने काज बिगारत।
जैसे लोचन हानि सहीं कवि बलिहि निवारत।।
एक प्रभु समेत अपनो भलो करत दासरथि दूत ज्यौं।
एक अपनो अरु प्रभु कौ बुरो करत रावरो पूत ज्यौं।।64।।
(दोहा) मंत्र जो चारि प्रकार के, मंत्रिन के जे प्रमान।
विष से, दाड़िमबीज से, गुड़ से नींब समान।।65।।
चंद्रवर्त्म छंद
राजनीति मत तत्व समुझिए।
देस काल गुनि युद्ध अरुझिए।।
मत्रि मित्र अरि को गुन गहिए।
लोक लोक अपलोक न बहिए।।66।।
रावण- चारि भाँति नृपता तुम कहियो।
चारि मंत्रि मत मैं मन गहियो।।
राम मारि सुर एक न बचिहैं।
इंद्रलोक सो वासहिं रचिहैं।।67।।
प्रमिताक्षरा छंद
उठि कै प्रहस्त सजि सैन चले।
बहु भाँति जाइ कपि पुंज दले।।
तब दौरि नील उठि मुष्टि हन्यो।
असुहीन गिरयो भुव मुंड सन्यो।।68।।
वंशस्थ छंद
महाबली जूझत ही प्रहरत को।
चढ़यो तहीं रावण मीड़ि हस्त को।।
अनेक भेरी बहु दुंदुभी बजैं।
गयंद क्रोधांध जहाँ तहाँ गजैं।।69।।
सवैया
देखि विभीषन को रन, रावण सक्ति गही कर रोस रई है।
छूटत ही हनुमंत सौं बीचहिं पूंछ लपेटि कै डारि दई है।।
दूसरी ब्रह्म की शक्ति अमोघ चलावत ही ‘हाइ’ ‘हाइ’ भई है।
राख्यो भले सरनागत लक्ष्मन फूलि कै फूल सी ओढ़ि लई है।।70।।
दोधक छंद
यद्यपि है अति निर्गुनताई। मानुष देह धरे रघुराई।।
लक्ष्मण राम जहीं अवलोक्यो। नैनन तें न रह्यो जल रोक्यो।।71।।
राम विलाप
लौचन बाहु तुहीं धनु मेरौ। तू बल विक्रम, वारक हेरौं।।
तो बिन हौं पल प्रान न राखौं। सत्य कहौं, कछु झूठ न भाखौं।।72।।
मोहिं रही इतनी मन संका। देह न पायी विभीषण लंका।।
बोलि उठौ प्रभु को प्रन पारो। नातरु होत है मो मुख कारो।।73।।
मैं बिनऊँ रघुनाथ करौ अब। देघ! तजौ परिवेदन कों सब।।
औषधि लै निसि मैं फिर आवहिं। केसव सो सब साथ जियावहि।।74।।
सोदर सूर कौ देखत ही मुख। रावन के सिगरे पुरवै सुख।।
बोल सुने हनुमंत करî पनु। कूदि गयो जहँ औषधि को बनु।।75।।
षट्पद
राम- करि आदित्य अदृष्ट नष्ट यम करौं अष्ट बसु।
रुद्रन बोरि समुद्र करौं गंधर्व सर्व पसु।।
बलित अबेर कुबेर बलिहि गहि देउँ इंद्र अब।
विद्याधरनि अविरो करौं विन सिद्ध सिद्धि अब।।
निजु होहिं दासि दिति की अदिति अनिल अनल मिटि जाइ जल।
सुनि सूरज सूरज उदत हीं करौं असु संसार बल।।76।।