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उत्तर काण्ड / भाग 2 / रामचंद्रिका / केशवदास

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पद्धटिका छंद

बहु भाँति राम प्रति द्वार द्वार।
अति पूजत लोग सबै उदार।।
यहि भाँति गये नृपनाथ (राजा दशरथ) गेह।
युत सुंदरि सोदर स्यौं सनेह।।22।।
(दोहा) मिले जाय जननींन कों, जबहीं श्री रघुराइ।
करुना रस अद्भुत भयो, मोपै कह्यो न जाइ।।23।।
सीता सीतानाथ जू, लक्ष्मन सहित उदार।
सबन मिले सब के किये, भोजन एकै बार।।24।।
(सोरठा) पुरजन लोग अपार, यहई सब जानत भये।
हमही मिले अगार, (सबसे अगाड़ी, पहले) आये प्रयस हमारेही।।25।।

मदनहरा छंद

संग सीता लक्ष्मन श्री रघुनंदन।
मातन के सुभ पाइ परे सब दुःख हरे।।
आँसुन अन्चाहे भागनि आये।
जीवन पाये अंक भरे अरु अंक धरे।।
ते बदन निहारैं सरबसु बारैं।
देहिं सबै सबहीन घनो अरु लेहिं घनो।।
तन मन न सँभारैं यहै विचारै।
भाग बड़ो यह है अपनौ किघौं है सपनो।।26।।

स्वागता छंद

धाम धाम प्रति होति बधाई। लोक लोक तिनकी धुनि धाई।।
देखि देखि कपि अद्भुत लेखैं। जाहिं यत्र तित रामहिं देखैं।।27।।
दौरि दौरि कपि रावर (रनवास) आवैं। बार बार प्रति धामनि धावैं।।
देखि देखि तिनको दै तारी। भाँति भाँति बिहँसैं पुरनारी।।28।।

राम-सुमित्रा संवाद

राम- (दोहा) इन सुग्रीव विभीषण, अंगद अरु हनुमान।
सदा भरत शत्रुघ्न सम, माता जी मैं जान।।29।।
सुमित्रा- (सोरठा) प्राननाथ रघुनाथ, जिय को जीवनमूरि हौ।
लक्ष्मन है तुम साथ, छमियहु चूक परी जो कछु।।30।।

दंडक

राम- पौरिया कहौं कि प्रतिहार कहौं, किधौ प्रभु,
पुत्र कहौ मित्र, किधौं मंत्री सुखदानिये।
सुभट कहौं कि शिष्य, दास कहौं किधौं दूत,
केसौदास हाथ कौ हथ्यार उर आनिये।।
नैन कहौं, किधौं तन मन, किधौं तनत्रान,
बुद्धि कहौं, किधौं बल-बिक्रम बखानिये।
देखिबे को एक हैं, अनेक भाँति कीन्हीं सेवा,
लखन के मात! कौन कौन गुन मानिये।।31।।

श्रीराम कथित राज्यश्री-निंदा

अगस्त्य (दोहा) मारे अरि पारे हितू, कौन हेत रघुनंद।
निरानंद से देखियत यद्यपि परमानंद।।32।।

तोमर छंद

श्रीराम-
सुनि ज्ञान मानसहंस। जप योग जाग प्रशंस।।
जग माँझ हैं दुख-जाल। सुख है कहाँ यहि काल।।33।।
तहँ राज है दुख-मूल। सब पाप को अनुकूल।।
अब ताहि लै ऋषिराय। कहि कौन नर्कहि जाय।।34।।
(दोहा) धर्मवीरता विनयता, सत्यशील आचार।
राजश्री नगने कछू, वेद पुराण बिचार।।35।।

चौपाई

सागर में बहुकाल जो रही। सीत वक्रता शशि ते लही।।
सूर तुरँग चरणनि ते तात। सीखी चचलता की बात।।36।।
कालकूट तैं मोहन रीति। मनिगन तैं अति निष्ठुर प्रीति।।
मदिरा तैं मादकता लयी। मंदर उदर भयी भ्रममयी।।37।।
(दोहा) शेष दई बहुजिह्वता, बहुलोचनता चारु।
अप्सरानि तैं सीखियो, अपर पुरुष संजारु।।38।।

राम विरक्ति वर्णन

विजय छंद

खैंचत लोभ दशौं दिशि को महि
मोह महा इत पासि कै डारे।
ऊँचे ते गर्ब गिरावत क्रोध सो
जीवहि लूहर (लूगर, लुआठ) लावत भारे।।
ऐसे मों कोढ़ की खाजु (दुःख को और अधिक बढ़ाने वाली वस्तु) ज्यों केसव
मारत काम के बाण निनारे (न्यारे ही)।
मारत पाँच करे पँचकूटहिं (पाँच जनों का गुट या समूह)
कासौं कहैं जगजीव बिचारे।।39।।
(दोहा) आँखिन आछत आँधरो, जीव करै बहु भाँति।
धीरन धीरज बिन करे, तृष्णा कृष्णा राति।।40।।

सुंदरी छंद

जैसहि हौं अब तैसहि हौं जग।
आपद संपद के न चलौं मग।।
एकहि देह तियाग बिना सुनि।
हौं न कछू अभिलाष करौं मुनि।।41।।
जो कुछ जीवउधारण को मत।
जानत हौ तौ कहौ तनु है रत।
यों कहि मौन गही जगनायक।
केसवदास मनो वच कायक।।42।।