भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मक्खी की निगाह / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 26 मार्च 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी बड़ी दिखती होंगी,
 मक्खी को चीजें छोटी।।
 सागर सा प्याला भर जल,।
 पर्वत सी एक कौर रोटी।।
 खिला फूल गुलगुल गद्दा सा,।
 काँटा भारी भाला सा।|।
ताला का सूराख उसे,।
होगा बैरगिया नाला सा।।
हरे भरे मैदान की तरह,।
 होगा इक पीपल का पात।।
भेड़ों के समूह सा होगा,।
 बचा खुचा थाली का भात।।
ओस बून्द दर्पण सी होगी,।
 सरसों होगी बेल समान।।
 साँस मनुज की आँधी सी,।
करती होगी उसको हैरान।