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सर-सागर / अन्योक्तिका / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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सागर - अबितहिँ वर्षा सम्पदा, कलुषित उमड़ल धार
किन्तु महोदधि निर्मले भरितहुँ सरित हजार।।13।।
जलनिधि व्यर्थें नाम थिक, रत्नाकर पद फूसि
प्यासल कण्ठ न देल जल-बिन्दु, लवन धन हूसि।।14।।

नदी - गिरि गौरव नहि गुनल किछु समतल नहि सम भाव
चंचल गति सरिता क मति क्षार वारि धरि धाव।।15।।

घटज (अगस्त्य) - कोटि कोटि संघटित घट सिन्धु बीचि भसिआय
किन्तु घटज मुनि सिन्धुकेँ चुलुक बिन्दु पिबि जाय।।16।।

जलाशय - मल धोअय, मीनहु हतय, पशुहु नहाय निधोक
पोखरि! कमलालय तोँ ही कहओ जडा (ला) शय लोक।।17।।

कूप - झील झलक, झरना ललक सागर सगर हहाय
पथिक पात्र-गुन लहि लघुहु कूपहि प्यास मिझाय।।18।।