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लोकवग्गो / धम्मपद / पालि

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१६७.
हीनं धम्मं न सेवेय्य, पमादेन न संवसे।
मिच्छादिट्ठिं न सेवेय्य, न सिया लोकवड्ढनो॥

१६८.
उत्तिट्ठे नप्पमज्‍जेय्य, धम्मं सुचरितं चरे।
धम्मचारी सुखं सेति, अस्मिं लोके परम्हि च॥

१६९.
धम्मं चरे सुचरितं, न नं दुच्‍चरितं चरे।
धम्मचारी सुखं सेति, अस्मिं लोके परम्हि च॥

१७०.
यथा पुब्बुळकं पस्से, यथा पस्से मरीचिकं।
एवं लोकं अवेक्खन्तं, मच्‍चुराजा न पस्सति॥

१७१.
एथ पस्सथिमं लोकं, चित्तं राजरथूपमं।
यत्थ बाला विसीदन्ति, नत्थि सङ्गो विजानतं॥

१७२.
यो च पुब्बे पमज्‍जित्वा, पच्छा सो नप्पमज्‍जति।
सोमं लोकं पभासेति, अब्भा मुत्तोव चन्दिमा॥

१७३.
यस्स पापं कतं कम्मं, कुसलेन पिधीयति ।
सोमं लोकं पभासेति, अब्भा मुत्तोव चन्दिमा॥

१७४.
अन्धभूतो अयं लोको, तनुकेत्थ विपस्सति।
सकुणो जालमुत्तोव, अप्पो सग्गाय गच्छति॥

१७५.
हंसादिच्‍चपथे यन्ति, आकासे यन्ति इद्धिया।
नीयन्ति धीरा लोकम्हा, जेत्वा मारं सवाहिनिं ॥

१७६.
एकं धम्मं अतीतस्स, मुसावादिस्स जन्तुनो।
वितिण्णपरलोकस्स, नत्थि पापं अकारियं॥

१७७.
न वे कदरिया देवलोकं वजन्ति, बाला हवे नप्पसंसन्ति दानं।
धीरो च दानं अनुमोदमानो, तेनेव सो होति सुखी परत्थ॥

१७८.
पथब्या एकरज्‍जेन, सग्गस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्‍चेन, सोतापत्तिफलं वरं॥

लोकवग्गो तेरसमो निट्ठितो।