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पूर्णिमा की रात में / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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पूर्णिमा की रात में यह
मधुर आमन्त्रण!
शरद के आकाश में-
धूमिल, सजल घन खो गए,
चाँदनी के पलक-तल
थककर नशे में खो गए ।
उतर आए दूत
पेड़ों के चँवर झलते;
खिल उठे सन्देश पाकर
आगमिष्यत् क्षण!

दर्पणीया नदी में
चुपचाप बिम्बित नीलिमा,
चित्रणीय कगार पर
संभाविता की भंगिमा,
हंसी की-सी गूँज
फलियों-भरी फसलों में,
साँस में घुल रहे चन्दन-
के अचीन्हे कण!

मैं न जानूँ किस तरह
ये पाँव उठते जा रहे,
बेखुदी में पास के
परिदृश्य बदले जा रहे!
दीप ढँककर बुझा
ऐपन–कृत हथेली से;
हो उठे सहसा सिंदूँरी
चाँद के लोचन!