भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मीठा काँदा / असंगघोष
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:00, 10 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=खामोश न...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बचपन में
मैंने देखा
माँ ने
बोरे में भरकर
अलगनी की ओट में
दीवार के सहारे
खूँटी पर
बाँध रखे थे
देशी काँदे,
माँ भरी दोपहरी में
मुझे फोड़कर देती थी मुट्ठी से
अपने हाथों बनी
ज्वार की रोटी खाने
अब नहीं है वह बचपन
अब वह अलगनी भी नहीं है
अब नहीं है वह बोरा
अब काँदे में वैसी मिठास भी कहाँ है।