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इन नयनों के नीर, सँभालो / श्यामनन्दन किशोर
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इन नयनों के नीर, सँभालो!
क्या है लाभ व्यथा कहने से?
भावुकता-सरि में बहने से?
छलक न जाये आँसू बनकर
द्रवित हृदय की पीर, सँभालो!
इन नयनों के नीर, सँभालो!
सुख के बजते तार न पूरे।
सभी मिलन-संगीत अधूरे।
दुर्दिन के ही आघातों से
जीवन का मंजीर, बजा लो!
इन नयनों को नीर, सँभालो!
रहती घन में विद्युत-रेखा।
बिना ज्योति के तिमिर न देखा!
क्षीण डोर से आशा की तुम
अपने मन की धीर, बँधा लो।
इन नयनों के नीर, सँभालो!
(1.1.55)