भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कपड़े टाँगने की चिमटी का खोना / हेमन्त कुकरेती

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:11, 17 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमन्त कुकरेती |संग्रह=चाँद पर ना...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तेज़ हवा और तीखी सर्दी में आफ़त है
कपड़े टाँगने की चिमटी ढूँढ़ना

उड़ गये कपड़े तो रहेंगे नहीं
जो रहने के बाद फिर नहीं रहता
रहते जीवन तक दुख देता है
कपड़ों का न रहना
सिन्थेटिक धागों का कम होना नहीं है सिर्फ़

कपास की बनी जेब से खनकते सिक्कों का खो जाना है
सिक्के जिनका बाज़ार-भाव गिरने के बावजूद आदमी से ज़्यादा है

कपड़े न हुए कण्ठ की फाँस हो गये
कपड़े टाँगने की चिमटी न हुई दाँत हो गये

खुले मैदान अब रहे नहीं
आपस में कपाल सटाये छतें हैं खड़ी
जहाँ दूसरे की दीवार का गिरना कोई नहीं सुनता
चिमटी गिरने की आवाज़ सुन लेते हैं सब
जो गिर गया वह हो जाता है हरेक का

फिर बच्चों के लिए तो
हर चीज़ उनके रास्ते पर गिरी है
पृथ्वी तक उनके लिए पैरों पर पड़ी गेंद है
वे चिमटी को क्यों छोड़ेंगे

गिरे हुए को उठाकर हक़दार को देना मुश्किल है
हर समय के हर मौसम में

कपड़े टाँगने की चिमटी ही तो है खोने पर इतना क्लेश क्यों?
यही सोचते हैं हम और एक-दूसरे की चिमटी चुराकर
अपने कपड़ों कोा बचाते हैं

कपड़े ही तो हैं सोचकर उतारते हैं सरेआम
और जो नहीं देखता, उसे चिल्लाकर बताते हैं:
देखो, हमें देखो!