भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसन्त-4 / नज़ीर अकबराबादी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:59, 19 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |संग्रह=नज़ीर ग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द पोश हो।
जिसकी नवेद पहुंची है रंगे बसंत को।
दी बर में अब लिबास बसंती को जैसे जा।
ऐसे ही तुम हमारे भी सीने से जा लगो।
गर हम नशे में ”बोसा“ कहें, दो तो लुत्फ़ से।
तुम पास मुंह को लाके यह हंस कर कहो कि ”लो।
बैठो चमन में, नर्गिसों सदबर्ग की तरफ़।
नज़्ज़ारा करके ऐशो मुसर्रत की दाद दो।
सुनकर बसंत मुतरिब ज़रीं लिबास से।
भर भर के जाम फिर मयेगुल रंग के पियो।
कुछ कु़मारियों के नग़्मे को दो सामए में राह।
कुछ बुलबुलों का जमज़मए दिल कुशा सुनो।
मतलब है यह ”नज़ीर“ का यूं देखकर बसंत।
हो तुम भी शाद दिल को हमारे भी ख़ुश करो।
शब्दार्थ
<references/>