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प्रार्थना - 7 / प्रेमघन
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मोहन कामहुँ के मन को, जग की जुवतीन को जो चित चोर है।
सेवक जाके सुरेसहुँ से, सोइ चाहत तेरी दया दृग कोर है॥
भाग भली तू लही ये अली, घन प्रेम कियो बस नन्दकिशोर है।
है घनस्याम बनो तुव चातक, जो वृजचन्द सो तेरो चकोर है॥