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जिन्दगी की कीमत / पल्लवी मिश्रा
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मौत की खाई को पारकर मैंने जिन्दगी पाई है,
इस बार मुझे अच्छी तरह इसकी कीमत समझ में आई है।
आसानी से मिली जिन्दगी से,
अब तक थे बहुत शिकवे-गिले,
चाहकर भी थमते नहीं थे,
ख्वाहिशों के सिलसिले;
जब वक्त के पथरीले जमीं पर ठोकर मैंने खाई है,
तब कहीं जाकर जिन्दगी की कीमत समझ में आई है।
अब बेवजह उदासी न होगी,
अब बेसबब रोना न होगा,
प्यार के दो-चार सही,
जो पल मिलें खोना न होगा;
हाथ आ चुकी खुशियों को जब खोने की बारी आई है,
तब कहीं जाकर जिन्दगी की कीमत समझ में आई है।
अब तक खुदा ने जो दिया,
कर सके न उसका शुक्रिया,
जो नहीं मिला उसके गम में,
हर खुशियों को ठुकरा दिया;
आज अपनी नादानियों की सजा खूब मैंने पाई है,
तब कहीं जाकर जिन्दगी की कीमत समझ में आई है।