भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पावस - 10 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:30, 22 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
नाच रहे मन मोद भरे,
कल कुंज करैं किलकार कलापी।
गाय रहे मधुरे स्वर चातक,
मारन मन्त्र मनोज के जापी॥
झिल्लियाँ यों झनकारि कहैं,
मन मैं घन प्रेम पसारि प्रतापी।
आज गयो विरही जन के बध,
काज अरे यह पावस पापी॥