भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन भर जलना तपना, ढलना / ज्योत्स्ना शर्मा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:22, 22 मार्च 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्योत्स्ना शर्मा |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन भर जलना तपना, ढलना
होते नहीं निराश
कितना कठिन समय हो
रवि तुम! कब लेते अवकाश!

कुहर, तुहिन कण, बरखा, बादल
मिलकर करें प्रहार
अम्बर के एकाकी योद्धा
कभी न मानो हार!
अवनि से आकाश तलक दो
सबको तेज, प्रकाश!

धुन के पक्के, जान गए सब
अकड़ू हो थोड़े
भेजा करते हो सतरंगी
किरणों के घोड़े
जग उजियारा करें, मिटा दें
तम को रहे तलाश!

उलझन ले हम आए दिनकर
पास तुम्हारे हैं
मानव-मन में दानवता ने
पाँव पसारे हैं
जुगत बताओ हमको, इसका
कैसे करें विनाश!