भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हर क्षण लागै छै, आवै छोॅ / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:59, 8 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रप्रकाश जगप्रिय |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर क्षण लागै छै, आवै छोॅ।

रोज नींद में चौंकी जाय छी
निरयासी केॅ द्वार निहारौं
मली-मली दोनों आँखी केॅ
ताकि तोरा देखेॅ पारौं
लेकिन तोहें दूर-दूर तक
छायो रं नै दिखलावै छोॅ।

सूनोॅ सेज पर छुच्छे यादे
जिनगी सिलवट बनलोॅ जाय छै
सुख कन्ने छै, छौर-पता नै
दुख ठामे केन्होॅ अगराय छै
सम्मुख आवै में की डर छौं
जे सपनै में बहलावै छोॅ।

की जिनगी सपनै, नींदोॅ रं
की दिन भाग में लिखलौ नै छै
भाँै छै बोहोॅ में किंछा
तैराकी जे सिखलोॅ नै छै
तोहें नदी किनारा सें ही
नै जानौ; की समझावै छोॅ।