भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाड़ा / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:43, 10 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=ढोल ब...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दलदल दलकै हमरोॅ हाड़
सुइये रं चूभै छै जाड़
कँपकँप काँपै दोनों ठोर
कस्सी बान्हलौं गाँती जोर
ओढ़ना ओढ़ोॅ वही रजाय
बुतरु वास्तें जाड़ कसाय
कनकन्नोॅ राते रं भोर
गुरुओ जी सें जाड़ कठोर
रौदा उगै नै, खेलौं खेल
बुतरु वास्तें जाड़ा जेल
गल्लोॅ जाय छै हमरोॅ हाड़
कहिया जैभा तोहें जाड़ ?