भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्वारे पाहुन आये हैं / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:24, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह=अम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बंदनवार
सजाओ
द्वारे पाहुन आये हैं

जब से
बने प्रधान
गाँव से बाहर ही रहते
कहते हैं पर लोग
गाँव की याद बहुत करते

यहाँ
गाँव में
नाली नाले सब उफनाये हैं

गुर्गे उनके
सभी गाँव में
हैं डंडे वाले
सारे बड़े मकान
यहाँ पर हैं झंडे वाले

झुनिया के
दो भूखे बच्चे
फिर रिरियाये हैं

काफी थे
वाचाल
मगर अब हैं मौनी बाबा
भक्त कह रहे मुझे
न जाना अब काशी काबा

बड़े बड़े
शाहों ने
अपने सर मुंडवाए हैं

बगल गाँव
के लोग
उन्हें बस शंका से ताकें
कभी मिलाएं हाँथ
कभी तो वो बगलें झांकें

कैसे उड़े
कबूतर
उसने पंख कटाये हैं।