भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गिला कैसा / अर्चना कुमारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:10, 16 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना कुमारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस रात में बस बरस रही है हँसी
पुराने इश्क के गुलमोहर से
झर रहे फूल पत्ते
बासी और पीले पड़ गये
मेरा आइना
दरक जाता है सच पर मेरे
और गुलमोहर की वो एक डाल जो
मेरे कमरे से तुम तक जाती थी वो सूख रही है
तुम्हारे झूठ और वहम का पौधा हरा रहे
तुम्हारा आइना तुम पर हँसता रहे
मेरे दरके हुए आइने का सुकून
कोई खाक समझेगा
ये आसान काम है
तुम भी कर ही लो
मेरे नाम चंद कहानियाँ गढ ही लो
मेरी गवाही बस मेरा खुदा है
सोचती हूँ रंज पालूँ
पर अजनबियों से गिला कैसा!!