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चिड़िया और कवि / शैलेन्द्र चौहान

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कविता में चिड़िया
चिड़िया की कविता

आजकल कविता फुदकती है
शिल्प के स्तर पर
रचनाकार चिंचियाता है चूँ-चूँ
कविता कुछ नहीं कहती
क्यों?

आदमी जुड़ता धरती से
धरती उगलती सोना
लोग चहलक़दमी करते हैं
भागमभाग जिं़दगी

आदमी जुड़ता आसमान में
गिर जाता खाई में
वह कुछ नही करता
जो करता है बेफ़िजूल

रोज़ रचता है नए-नए व्यूह
कुचलता इंसानियत को
रौंदता आदमी को
प्रश्न सहज है
जवाब उससे भी आसान

जब होतेहैं हम कवि
तब आदमी नहीं होते
जब करते हैं बात
कलुआ, रमुआ, सुखिया, होरी की
कोरी, चमार और अघोरी की
तब हम बहुत दूर होते हैं
उन स्थितियों, परिस्थितियों एवं
संस्थितियों से

और
जब हम बात करते हैं
चिड़िया की
तो नहीं होते
उतने सहज
उतने सरल
एवं स्वच्छंद।