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सूना गाँव / शरद कोकास

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न कोई पदचाप न कोई आहट
न मनुष्यों की न पशुओं की
जस के तस खड़े मकान
धूल से सने हुए उदास
इन मकानों में रहने वाले
भूख पर ताला नहीं लगा सके
किवाड़ों पर ताले जड़कर चले गए

चूल्हें ने कई दिनों से नहीं देखी आग
ढोलक ने कई दिनों से नहीं गाई फाग
चौपाल पर सजी नहीं महफिलें
कोयल किसके लिए छेड़े कोई राग
मुंडेर पर उग आई झाड़ियाँ
सूखा तुलसी का बिरवा
सूने पनघट खाली मैदान
बंजर खेत तनहा श्मशान
मंदिर की घंटियाँ ख़ामोश
फिज़ाँ में नहीं अज़ान की गूँज

सुनते हैं वह फिर आया था
फिर आया था काल बनकर
हलचल निगल गया
डस गया आवाज़ों को

भूख की नंगी तलवारों ने
उस रात उन कदमों को हाँका
जो आए दिन वैसे भी करते थे
एक वक़्त का फ़ाक़ा

बूढ़ा बरगद बाट जोहता है
परदेस गए उन कदमों की
सूखे तालाब को आस है
लबालब भरे सपनों की
उन्हें उम्मीद है एक दिन
फिर आबाद होंगे ये कच्चे मकान
फिर सुनाई देगी गाँव में
किसी सुबह आल्हा की तान।

-2000