भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगानी को कभी मेरी संवारा होता / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:09, 5 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिया सचदेव |अनुवादक= |संग्रह=फ़िक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ज़िन्दगानी को कभी मेरी संवारा होता
एक लम्हा ही मेरे साथ गुज़ारा होता
उम्र भर जिस की मोहब्बत में तड़पती मैं रही
काश उसको भी मेरा प्यार गवारा होता
किसी दीवार के रोके से न रुक पाते हम
प्यार से तुमने जो इक बार पुकारा होता
दिल तो क्या चीज़ है हम जाँ भी निछावर करते
आप की आँख का गर एक इशारा होता
चारागर कर नहीं सकता मिरे ज़ख्मों का इलाज
आप आते तो मेरे दर्द का चारा होता
ऐ सिया डूब न जाते हम इस आसानी से
गर हमें भी किसी तिनके का सहारा होता