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बोलो कनू / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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बोलो कनू!
कहाँ से लाये तुम यह सूरज
हमने बरसों इसको खोजा
नहीं मिला यह
हँसे ज़रा-सा तुम खुलकर
क्या तभी खिला यह
अलग किसिम की
कनू, नये दिन की है सजधज
आसमान के इस कोने को
ज़रा छुआ बस
लगा टपकने इसमें से
मीठा जीवन-रस
कैसे तुमने
रचा उँगलियों से यह अचरज
महक रहा जो लीलाकमल
तुम्हारा है क्या
मंत्र नेह का
तुने अभी उचारा है क्या
यह सूरज
क्या अपने सपनों का है वंशज