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रूपजीवी श्यामला जो / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

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रूपजीवी श्यामला जो
हाँ, यही थी भील-कन्या
 
आज जिसकी साँस में
हम ज़िक्र सुनते
शहर भर के मनचलों का
कल उसी की आँख में
जादू भरा था
हाँ, कँटीले जंगलों का
 
यही तो थी तब
वनैली घाटियों की झील अन्या
 
पर्वतों के ढाल पर
यह कल मिली थी
नदी-झरने सँग उतरती
रूप के इस हाट में अब
रात-बीते
आँख इसकी रोज़ झरती
 
घने वन में
छोड़ आई थी जली कंदील वन्या
 
रात-आये रोज़ आती
इस गली में
नव-रईसों की सवारी
श्यामला उनको निबटती
किन्तु रहती है
कुँवारी की कुँवारी
 
आज भी
निश्छल वनों में नाम इसका शीलधन्या