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मछुआरिन हुई अकेली / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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नदी पारकर
कल मछुआरिन हुई अकेली
इधर शहर में
आई बेचने थी वह मछली
सडकें चिकनी थीं
अनजाने में वह फिसली
एक गली से
दूजे में वह गई ढकेली
हाट बिकानी-कोठे चढ़ी
बहुत भरमाई
चाँदी की चौखट पर
उसने ठोकर खाई
कहा सभी ने -
कैसी क़ातिल यह अलबेली
आँगन छूटा- सपने टूटे
हुई भिखारिन
उसकी सांसों में ज़िंदा
अब भी मछुआरिन
बाट जोहती
कब आएगी मृत्यु-सहेली