Last modified on 20 जुलाई 2016, at 03:32

प्रेम / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:32, 20 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=शब्द प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

धरनी प्रेम न पागिया, फेरि बिगारिय भेस।
मनको शिर मूंडयो नहीं, कहा मुंडाये केस॥1॥

धरनी सब परपंच है, एक प्रेम है सांच।
परै फतिंगा आगिमें, माखी सहै न आंच॥2॥

प्रेम जहाँ जहँ उपजै, धरनी यहि संसार।
तहां तहां उठि भागिया, नेम अचार विचार॥3॥

प्रेम-प्रकाश प्रकाश जेहि, धरनी ता बलि जाय।
प्रेम-विह्वने मानवा, कत जग जन्मे आय॥4॥

धरनी प्रेम-प्रवाह में, वार पार कछु नांहि।
सुरपुर नरपुर नागपुर, प्रेम एक ही माँहि॥5॥

जाको जैसो प्रेम है, सहज मिले मगु सोय।
पराचीन परिचय नहीं, धरनी फिर ना होय॥6॥