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रसप्रबोध / रस प्रबोध / रसलीन

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रसप्रबोध

दोहा मैं यदि अंथ को कीन्हौं तेहि रसलीन।
अपने मन की उक्ति सो रचि रचि जुक्ति नवीन।।23।।
नवहूँ रस को जब भयो यामै बोधु बनाइ।
रसप्रबोध या ग्रंथ को नाम धर्यौ तब ल्याइ।।24।।
सत्रह सै अट्ठानबे मधु सुदि छठ बुधवार।
बिलगराम मैं आइ कै भयौ ग्रंथ अवतार।।25।।
बाँचि आदि ते अंत लौ यहि समझै जौ कोई।
तेहि औरनहि ग्रंथ मैं फेरि चाह नहिं होइ।।26।।
कविजन लौं रसलीन यह बिनती करत पुकारि।
भूलि निहारि बिचारि कै दीजै बरन सुधारि।।27।।

रस-वर्णन

बरनि मंगलाचरण अरु कविकुल को अब आनि।
रस कौं बरनन करत हौं ग्रंथ मूल जिय जानि।।28।।

रस-लक्षण

स्रवन सुनत रस सब्द को ग्रंथनि देख्यौ जाइ।
रस लच्छन तिनके मते समुझि परयौ यह आइ।।29।।
जब विभाव अनुभाव अरु विविचारी ते आनि।
परिपूरन थाई जहाँ ऊपजै सब रस जानि।।30।।

रस-रूप

जो धाये रस बीज विधि मानुस चित छिति माहिं।
ताके अंकुर जो कछू सो थाई कहि जाहि।।31।।
अवसर सम उपजावने सरसावत जल रूप।
आलंबन उद्दीप सो जान विभाव अरूप।।32।।
अनुभावहु तरु प्रकट करि जानि लेहु यह बात।
विविचारी है फूल सौं छिन छिन फूलत जात।।33।।
तिन संजोग मकरन्द लौं रस उपजत है आनि।
रसिक मधुप कवि चित्र करि ताहि करै पहिचानि।।34।।

सर्वप्रथम भाव वर्णन का कारण

भावहि ते रस होत है समुझि लेहु मन माहिं।
याते पहले भाव कवि बरनत है ठहराहि।।35।।

भाव-लक्षण

जो रस को अनकूल ह्वै बदलै सहज सुभाव।
बिन बस ताको भाव कहि भाषत है कविराव।।36।।
सोइ भाव ग्रंथनि मते द्वै विधि लीजै जानि।
इक थाई अरु दूसरो उद्दीपन जिय मानि।।37।।
थाई है मन भाव सों रत्यादिक नौ गाइ।
ते निज निज रस मैं रहै वै थिर ह्वै ठहराइ।।38।।
विविचारी तिनको कहैं कोबिद बुद्धि अपार।
बहुर सकै सब रसन मैं जिनको होइ सँचार।।39।।
नौ थाई सो मूल है नवरस के पहचानि।
विविचारिन को काज सब दैहौं सकल बखानि।।40।।
तिन विविचारिन को सुमति द्वै विधि करत विवेक।
तन विविचारी एक है मन विविचारी एक।।41।।
अष्ट स्वेद आदिक सोई तन विविचारी जान।
तैंतिस निरवेदादि सों मन विविचारी मान।।42।।
तन विविचारिन थाइयन प्रगटै ज्यों अनुभाव।
सहचारी थाईन के मन विविचारी भाव।।43।।
नौ थाई अरु आठ तन विविचारी परकास।
तैंतिस मन विविचारियन मिलि हैं भाव पचास।।44।।

स्थायी भाव-लक्षण

जब भावन मैं यह लख्यौ थाई है रसमूल।
तब इनकौ प्रथमै कर्यौ बरनन ह्वै अनुकूल।।45।।
जो रस सनमुख ह्वै कछू बदलै सहज सुभाव।
तेहि बदलनि को कहत हैं कविजन थाई भाव।।46।।
जा रस सनमुख जो कछू तनक बदल हिय होइ।
ता रस को थाई वहै यह बरनत कवि लोइ।।47।।

स्थायी भावों के नाम

रति हाँसी अरु सोक पुनि कोप उछाह सु आनि।
भय घृण अचरज समुझि पुनि निरवेदहि थिर जानि।।48।।
थाई कारन को सुकवि कहत विभाव विशेषि।
सो द्वै विधि आलंब अरु उद्दीपन अवरेषि।।49।।
उपजै थाई जाहि लै सो अनिभावन जानि।
अधिक जाहि ते होइ सो उद्दीपन पहिचानि।।50।।

जो थाई का आनि कै प्रगट करै अनयास।
सोई है अनुभाव यह बरनत बुद्धि निवास।।51।।

स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, विविचारी भाव के रस होने का वर्णन

रत्यादिक थिर भाव को कारन जान विभाव।
कारज है अनुभाव अरु सहकारी चर भाव।।52।।
प्रकटत थिरहि विभाव पुनि कछु प्रगटत अनुभाव।
अति प्रगटत हैं आनि पुनि जे अनुभव चर भाव।।53।।
थाई के यौं प्रकट भय रस कहियत हैं सोइ।
जेहि स्वादन मैं भूलि सब महामगन मन होइ।।54।।
सो रस चित्रित कवित मैं कविजन चित्र समान।
जाहि लखतहूँ रीझि कै मोहत चतुर सुजान।।55।।
याही को रस कहत हैं सो कवि ग्रंथनि ल्याइ।
अपने अपने रूप पै नौ विधि लिखे बनाइ।।56।।

नवरसों के नाम

रस सिंगार सुहस करुन रौद्र बीर कौ आनि।
अरु भयानक बीभत्स पुनि अद्भुत सांत बखानि।।57।।
काव्य मतै थै .... नवरसहु ... बरनत सुमति विसेषि।
नाटक मति रस आठ हैं बिना सांत अविरेषि।।58।।
सो रस उपजै तीनि विधि कविजन कहत बखानि।
कहुँ दरसन कहुँ स्रवन कहुँ सुमिरन ते पहिचानि।।59।।