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शृंगार-रस / रस प्रबोध / रसलीन

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स्थायी उद्दीपन-वर्णन

आलंबन मैं नायिका नायक प्रथम बखानि।
सखि दूती रितु आदि दै उद्दीपन मैं आनि॥604॥

सखी-लक्षण

रहै सदा जो संग अरु करै काज सब आनि।
हित अनहित कहुँना कहै सोइ सखी पहिचानि॥605॥

सखी के चार विधि-कथन

सखी चारि हितकारिनी विग्य बिदग्धा ल्याइ।
अंतरंगिनी और पुनि बहिरंगिनि कहि जाइ॥606॥
सखि लच्छन मैं कैस हूँ बहिरंगिनि न समाइ।
अंतरंगिनी जोर तें ग्रंथन बरनी जाइ॥607॥

हितकारिनी सखी-उदाहरण

छिन बनाइ भषन बसन लखति दिठौना लाइ।
छिन बारति धन सीस पै राई नोन बनाइ॥608॥
चित चाहत अलि अंग तुव लहि दीपक परमान।
लै लै जनम पतंग कों सदा बारिये प्रान॥609॥

विज्ञ बिदग्धा-उदाहरण

गुंज लैन तू आपु कत कुंज गई यहि काल।
कंटक छत नख चाहि कै चख नचाइ कै बाल॥610॥
लाल रंग फीको पर्यौ लीन्हौ मनो निचोइ।
मिलै जु बारी सुमन यह तौ बर नीको होइ॥611॥

अंतरंगनी-उदाहरण

मन मोहन ल्यावति नहीं मोहन ल्यावति धाइ।
कारे याहि डस्यौ नहीं कारे डस्यौ बनाइ॥612॥
सबै आपने अर्थ को बिथा न जानत कोइ।
प्यारी उर मैं पीर है जतन कछू नहिं होइ॥613॥

बहिरंगिनी-उदाहरण

पिय देखत ही काम तें गह्यौ कंप तिय आइ।
सीत जानि अलि अगिन को ल्याई बेगि जराइ॥614॥

सखी का काम-कथन

मंडन सिच्छा दैन अरु उपालंभ परिहास।
सखी काज ये चारि बिधि बरनत बुद्धि निवास॥615॥

मंडन-उदाहरण

सखिन सँवारी भावती निज निज कारज जानि।
मालिनि लै पुहुपाभरन भई सामुहे आनि॥616॥
सखिन परी है कठिन तब भूषन कनक बनाइ।
बार हार हेरत तऊ दृगन लख्यौ नहिं जाइ॥617॥

सिच्छा-उदाहरण

अपने घर बैठी रहौ बाहिर देहु न पाइ।
डरियत है चितवनि हरी हरी न तुव मति जाइ॥618॥
जेहि दृग सों दृग लगि झरी अगिनि हिये मैं आइ।
तेहि तनु पानिप माँह अब लीजै बेगि बुझाइ॥619॥

उपालंभ-उदाहरण

मोहि नहीं यह रावरी नोखी रीति सुहाइ।
बाँधि रही रिस भीच कौ सील कपूर उड़ाइ॥620॥
जिन्हैं आपनो जानि तूँ ज्यायो अमृत प्याइ।
तिन्है मारियत बावरी बिष के बान चलाइ॥621॥

परिहास
सखी का नायिका से

नेवर पिय श्रुति लगन को सुख लीजै भरि पूरि।
अबहीं दिन छुद्रावली बोलन के अति दूरि॥622॥
लगे नखन लखि सखि कह्यौ कर चलाइ कुच हाल।
नख के सिर लागत दई चष के सिर यह बाल॥623॥

परिहास
सखी का नायक के प्रति

एक सखी इक छोहरै राधे रूप बनाइ।
रीती मटुकी सीस दै हँसी स्याम बहकाइ॥624॥
तियन मुकुट पट छीनि कै होरी औसर जानि।
सब सिंगार ललीन के करे स्याम तन आनि॥625॥

नायिका का परिहास
नायक के प्रति

चित्र चित्रनी चित्र तिलु दीन्हौं अधिक सुजान।
चित्र और को मानि तिय कियौ मित्र सो मान॥626॥
सोधा लावत कंचुकी निज पिय चितयो बाल।
निरखत भाजे सकुच तें डारि कंचुकी हाल॥627॥

नायिका का परिहास
नायक से

मरली आपु लुकाइ कै पूछति है वृजनाथ।
कहति हमारो हारहू धरयौ हुतो तिहि साथ॥628॥
लाइ बिरी मुख लाल तें सैंच लई जब बाल।
लाल रहे सकुचाइ तब हँसी सबै दै ताल॥629॥