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षटऋतु वर्णन / रस प्रबोध / रसलीन

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षटऋतु वर्णन

बसंत-वर्णन

कहुँ लावति विकसत कुसुम कहूँ डोलावति घाइ।
कहूँ बिछावति चाँदनी मधुरितु दासी आइ॥673॥
यह मधुरितु मैं कौन कै बढ़त न मोद अनंत।
कोकिल गावत हैं कुहुकि मधुप गुंजरत तंत॥674॥
औषधीस सँग पाइ अरु लहि बसंत अभिराम।
मनो रोग जग हरन को भयो धनंतर काम॥675॥
फूले कुंजन अलि भँवत सीतल चलत समीर।
मानि जात काको न मनु जात भानुजा तीर॥676॥
सरबर माहि अन्हाइ अरु बाग बाग भरमाइ।
मंद मंद आवत पवन राजहंस के भाइ॥677॥
कल्पवृच्छ तें सरस तुव बाग दु्रमन कौं जानि।
सागर निकसो लखन की जल जंत्रन मिसि आनि॥678॥

ग्रीष्म ऋतु-वर्णन

धूप चटक करि चेट अरु फाँसी पवन चलाइ।
मारत दुपहर बीच मैं यह ग्रीषम ठग आइ॥679॥
छुटत न यै नल नीर जल जल सजि छिति तें आइ।
निरख निदाध अनीति को चल्यौ भानु पै जाइ॥680॥
कोउ उभकत उछरत कोऊ कोउ जल मरत धाइ।
लखि नारिन जल केलि छबि पिय छकि रह्यौ लोभाइ॥681॥
पिय छीटत यौं तियन कर लहि जल केलि आनन्द।
मनो कमल चहुँओर तें मुकुतन छोरत चंद॥682॥

पावस ऋतु-वर्णन

पावस मैं सुरलोक तें जगत अधिक सुख जानि।
इन्द्रबधू जिहि रितु सदा छिति बिहरति है आनि॥683॥
सुमन सुगंधन सों सनी मंद मंद चलि आइ।
प्रौढ़ा लौं मन को हरति हिय लगि बरषा बाइ॥684॥
अरुन चीर तन मैं सजै यों बिहरति है नाहिं।
मानो आई है सुरी बसुधा हरी निहारि॥685॥
झूलि झूलि तिथ सिखति है गगन चढ़न की रीति।
आजु काल्हि मंह आइहैं सुर नारिन कों जीति॥686॥

सरद ऋतु-वर्णन

चन्द्र छत्र धरि सीस पै लहि अनंग उपदेस।
कमल अस्त्र गहि जीति जग लीन्हौं सरद नरेस॥687॥
चन्द्र बदन चमकाइ अरु खंजन नैन चलाइ।
सकल धरा को छलति यह सरद अपछरा आइ॥688॥
दिन सोहित जल अमल मैं निरमल कमल अनूप।
निसि सोहन ही बाद बदि हिय मोहत ससिरूप॥689॥

हेमंत ऋतु-वर्णन

दिन निसि रबि ससि लहत है हेम सीत के जोग।
भरम चकोरन भोग है, कोकन भरम वियोग॥690॥
हेम सीत के डरन तें सकति न ऊपरि जाइ।
रह्यौ अगिनि कौ पाइ कै धूम भूमि पै छाइ॥691॥

सिसिर ऋतु-वर्णन

प्रगट कहत या सिसिर मैं रूख रूख के पात।
बिछुरन को सीतहु धरे सूखि जात हैं गात॥692॥
मान न काहू को रहत ल्याइ दूतिका घात।
मिलै देति या सिसिर की सीरी सीरी बात॥693॥

अन्य दूसरे उद्दीपन

निकसत षटरितु मैं बहुरि उद्दीपन यह पाइ।
यातें फिरि बरन्यौ नहीं, इन्हें भिन्न करि लाइ॥694॥
धाम सेज रागादि मिलि यह उद्दीपन जानि।
इहाँ कछू संछेप तें बरनन कोन्हौं आनि॥695॥

अंगज संभोग-उद्दीपन

आलंबन चुबंन परस मरदन नख रद दान।
यै अंगज संभोग मैं उद्दीपन परिमान॥696॥