भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रौढ़ा मान / रसलीन

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:29, 22 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रसलीन |अनुवादक= |संग्रह=फुटकल कवि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

होरी अवसर में

फागुन के औसर मैं मान है करत कोऊ,
तू है प्यारी पी की, पिय रावरोई मीत है।
जो वे रंग केसर के डारिहैं तो तेरे अंग
अंगन पर ह्वै हैं रंग परम पुनीत है।
और तैं जो पिचकारी केसर की मारिहै तो,
उन पैं चढ़ैगो गोरी थारो रंग पीत है।
या ते चल गोरी होरी खेलैं रसलीन जू सों,
तो कों एक बिधि लाभ, दूजे बिधि जीत है॥33॥

उत्तर

सकल सुवन होइ रदन सुनो बतान,
काम नहीं आवत है बचन बनाइबो।
प्रीत को निबाह एक ओर तें तो होत नांहि,
ज्यों न एक हाथ होत तारी को बजाइबो।
जैसे कि बिटप देत पानिप पुहुप तैसै,
पुहुप करत सोभा बिटप बढ़ाइबो।
टूटे ते परसपर छाज न रहत राज,
आवत है कौन काज वाही को कहाइबो॥34॥