भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नेत्र बरनन / रसलीन
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:41, 23 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रसलीन |अनुवादक= |संग्रह=फुटकल कवि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पहिरैं गुदरी तन सेत असेत तिहूँ जग कों नितही निदरैं।
हरि रूप अनूप के चाहन को बरने करि हाथ सों आँगी धरैं।
बरजो कोऊ केतो निरादर कै रसलीन तऊ नहिं टारे टरैं।
सो देखौं लजीली मेरी अँखियाँ पलको न लगैं टकटोई करैं॥96॥