दोहा / भाग 3 / महावीर उत्तरांचली
अदभुत यह अहसास है, बुझे न बुझती प्यास
चकोर देखे चाँद को, मधुर मिलन की आस।21।
दीमक जैसे खा रही, लकड़ी के गोदाम
नैतिकताएँ खोखली, यूँ बिके सरे आम।22।
महानगर ने खा लिए, रिश्ते-नाते ख़ास
सबके दिल में नक़्श हैं, दर्द भरे अहसास।23।
रेखाओं को लाँघकर, बच्चे खेलें खेल
बटवारे को तोड़ती, छुक- छुक करती रेल।24।
बटवारा क्योंकर हुआ, इस पर करो विचार
हिन्दू-मुस्लिम एकता, कहाँ गई थी यार।25।
महँगाई की मार है, पेट-पेट है भूख
पूंजीपति के हाथ में, शोषण की बन्दूक।26।
भूली-बिसरी दास्ताँ, आ रही मुझे याद
आँसू बनकर बह चली, होंठों की फ़रियाद।27।
मन्थन, चिन्तन ही रहा, निरन्तर महायुद्ध
दुविधा में वह पार्थ थे, या सन्यासी बुद्ध।28।
जीवन के कुरुक्षेत्र में, जब-जब आया स्वार्थ
ले गीता को हाथ में, बन जा तू भी पार्थ।29।
बड़े-बड़े योद्धा यहाँ, वार गए जब चूक
'महावीर' कैसे चले, जंग लगी बंदूक।30।