Last modified on 18 अक्टूबर 2016, at 03:44

सुघर साँवले पर लुभाए हुए हैं / बिन्दु जी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:44, 18 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिन्दु जी |अनुवादक= |संग्रह=मोहन म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सुघर साँवले पर लुभाए हुए हैं।
कि सर्वस्व अपना लुटाये हुए हैं॥
अदा मुस्कराहट चलन और चितवन।
ये मेहमान मन में बसाए हुए हैं।
कृपा की नज़र उनकी कितनी है मुझपे।
कि घर इस जिगर में बनाए हुए हैं।
न भूलेगा अहसान उनका मेरा दिल।
कि नजरों पै इनको चढ़ाये हुए हैं।
दृगों के ये दो ‘बिन्दु’ हैं श्याम इसके।
कि घनश्याम इसमें समाये हुए हैं।