भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्वयं हो / सपना मांगलिक
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:49, 21 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सपना मांगलिक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
माना जीवन डगर अँधेरी
ना घबराना अंधेरों से मेरे बच्चे
टिमटिमाते जुगनू तुम स्वयं हो
माना मंजिल दूर बहुत है
ना घबराना तन्हाई से मेरे बच्चे
तुम ही राही कारवां तुम स्वयं हो
माना दुःख की छाएंगी घटायें
जीवन में क्षण –प्रतिक्षण
ना घबराना दुखों से मेरे बच्चे
सुख का ओजस्वी सूर्य तुम स्वयं हो
रखो याद बाद वसंत के पतझड़
आता अवश्य ही जीवन में
ना घबराना पतझड़ से मेरे बच्चे
खिलता-महकता उपवन तुम स्वयं हो
जीत –हार पहलू दो जीवन सिक्के के
ना घबराना हार से मेरे बच्चे
जीत के आगामी कीर्ति स्तंभ
भी तुम स्वयं हो
ना दोष मढना गलती का अपनी
सुनो कभी दूजों के सर
शर्मिन्दा भी होना ना मेरे बच्चे
गलतियों के जिम्मेदार भी तुम स्वयं हो
और उनसे सीखा अनमोल सबक
मेरे बच्चे तुम स्वयं हो