भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीत चुके अपने शहर में / योगेंद्र कृष्णा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:59, 10 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह=बीत चुके शहर में / योगेंद्र कृ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तेजी से बीत चुके

अपने शहर में लौटा हूं

और ठिठक गया हूं

उस गोरैये की तरह

जो लौटती है अपने घोंसले में

चोंच में दाना लिए

और ठिठक जाती है हवा में

घोंसले की जगह शून्य देख कर...

पंख फरफराती हुई...

इर्द-गिर्द देर तक मंडराती हुई...

नहीं मिला मुझे भी

मेरा घर

मेरा देखा सुना शहर

मेरी खोई दुनिया का

कोई सुराग...

बहुत ऊंचाई पर

लगभग हवा में टंगी

घंटा घर की वह घड़ी

जरूर मिली

घर लौटते हुए जिसमें मुझे

मां की प्रतीक्षारत

झुर्रियां दिखती थीं

और जिसे देख कर मैं

अपनी साइकिल की रफ्तार

तेज या धीमी करता था

लेकिन वही घड़ी

मुंह बाये

आज पूछती है मुझसे--

किस मौसम की

कौन सी तारीख है यह...

इस शहर में इस वक्त

आखिर कितना बजा है ?

कुछ ही दूरी पर

मलबे से झांकता

मील का वह पत्थर भी दिखा

जिसे देख कर मैं जान जाता था

कि घर अब

बस एक कोस दूर है

रास्ते का मुसाफिर बना

अपनी जगह ढूंढ़ता

वही पत्थर

आज पूछता है मुझसे--

शहर का यह रास्ता

अब किधर जाता है ?

खड़ा हूं स्तब्ध-मौन...

सामने उनके

अपने ही शहर की

तारीख, समय और

मील का पत्थर बन कर