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मर्द की मूंछ / योगेंद्र कृष्णा

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सपने में एक रात

गांव-गांव के बीच

दीवारों को गिराता

वह

विश्वग्राम की संकल्पना को

साकार कर रहा था...

सभी गांव शहर और देश

सिमट कर एक हो रहे थे

और वह

अपनी ही बनाई सड़कों पर

तेज रफ्तार

आगे बढ़ रहा था...

तभी

पीछे से

जैसे किसी ने आवाज दी

मुड़कर देखा

बहुत पीछे

एक नंगी देह औरत

अपने सफेद-पुते चेहरे ढोती

सड़कों पर चलाई जा रही थी-

जैसे गायें या भैंसे चलाई जाती हैं-

पीछे सारा गांव था

मर्द थे

जो अपनी मूंछें

औरत की नंगी देह में

उगी देखना चाहते थे

सड़कों के किनारे

दोनों तरफ खड़ी औरतें

मजबूर थीं

उस नंगी औरत की देह में उगी

अपने मर्दों की

मूंछ देखने को

नंगी औरत

जिस सड़क पर चल रही थी

हमारी सड़क की तरह

विश्वग्राम की ओर

नहीं जाती थी

एक बियाबान में

गुम हो जाती थी

उस औरत पर

ढाए गए जुल्म की कहानी

विश्वग्राम तक आने वाली

सड़कों से चल कर

एक दिन तड़के

हाईटेक मीडिया की

सुर्खियों में आईं

और एक ग्राम में सिमटे

नींद के हाशिए पर

लेटे-अधलेटे

नंगे-अधनंगे

संपूर्ण विश्व ने

इस हादसे को

सूरज निकलने के पहले

सुबह की पहली चाय के साथ

सुड़क ली

सूरज निकलने तक

यदि उन्हें याद रह गए हैं

तो बस

आज के शेयर बाजारों के भाव

उनके उतार-चढ़ाव

और कुछ बहुमूल्य धातुओं

की बढ़ती चमक से झांकते

अपने भविष्य के सपने

जो उन्हें

बहुत कुछ दे सकते हैं

बहुत पीछे छूट गई

वह नंगी सफेद-पुती औरत

उन्हें क्या दे सकती है

उसकी नग्नता भी

तो दरअसल

उन्हीं की है