भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीड़ मौसम और पहाड़ / योगेंद्र कृष्णा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:43, 10 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह=बीत चुके शहर में / योगेंद्र कृ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे क्या पता था

कि अच्छी चीजें अच्छे लोग

और अच्छे मौसम

हमारे आस-पड़ोस से

एक दिन गुम हो जाएंगे

इस तरह

कि हमें उनकी तलाश में

जाना होगा सुदूर

घाटियों पर लटके पहाड़ पर

और फिर एक दिन

जहां का बचा हुआ

अच्छा मौसम

अच्छी चीजों के साथ

साबूत उतर आएगा

उसकी खूबसूरत गहरी आंखों में

लेकिन मुझे

इसी दुनिया के आस-पास

इन्हीं आंखों के साथ

भीड़ में ही होना था एक दिन...

इसलिए जरूरी था

कि पहाड़ से उतरने के पहले

उसकी आंखों से

उतर जाए यह मौसम...

नहीं हुआ ऐसा...

उतर आई वह अचानक

भीड़ में

रेतीली जमीन पर

और उसके साथ उतर आया

पहाड़ का पूरा मौसम

और अच्छे मौसम

अच्छी चीजों के विरुद्ध

वहां खड़ी थी पूरी भीड़

पहाड़ की जड़ों के आसपास

जहां होना था मुझे एक दिन

भीड़ में ही उसके साथ...

परिंदे हवा और पत्तियां

भीड़ पहाड़ जमीन और आकाश

दृश्य अदृश्य सबकुछ

कांप गए थे अचानक

घाटियों से उठी अचानक चीखों से...

खो चुकी थी भीड़ में

अपनी आंखों समेत वह लड़की

और मैं दौड़ा था बदहवास...

मुझे क्या पता था

कि घाटियों में बचे हुए मौसम का

हुआ था बलात्कार...

कि हर अच्छे मौसम की तरह

आज मर गया था पहाड़...

r


मुझे क्या पता था

मुझे क्या पता था

किसी की आंख के आंसू में

उसके जीवन का

संपूर्ण सुख तैर सकता है

मुझे क्या पता था

तुम्हारे अनकहे में ही

तुम्हारा सारा कहा शामिल था

हां मुझे नहीं पता था

तुम्हारी मृत्यु में

तुम्हारे जीवन की

संपूर्ण सत्ता

जीवंत थी