भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चट्टान चुप्पियां / योगेंद्र कृष्णा
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:47, 10 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह=बीत चुके शहर में / योगेंद्र कृ...)
मैं चट्टानों पर उगा
एक पौधा हूं
उनके भीतर
बहने वाली नदियों के बारे में
सिर्फ मैं जानता हूं
चट्टानों की
अभिशप्त चुप्पियां
मेरी जड़ों के कोमल
स्पर्श से टूटती हैं
उनके अंतस्तल की
सूख गई नदियां
सिर्फ मेरे लिए फूटती हैं
बारिश की बूंदों और
सूरज की पहली किरणों से
चट्टानों के गर्भ में
अघटित जीवन का
नैसर्गिक ज्वार उफनता है
जो मेरी शाखों से
पत्तियों तक
दसों दिशाओं में
आकाश से पाताल तक
जीवन संगीत की तरह गूंजता है...
और
समाधिस्थ ऋषियों फ़कीरों
की तंद्रिल आंखों में
पारे सा लरजता है...
इसलिए सिर्फ मैं जानता हूं
ये चट्टानें
इस पूरी धरा पर
क्यों
सिर्फ हरा सोचती हैं...