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मैदान की जीत / योगेंद्र कृष्णा

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दुनिया की हर चीज में

समय के साथ

बहुत कुछ बदलता

टूटता छूटता और जुड़ता रहा...

पर युगों से जारी

आदिम इस खेल की शर्तें

नहीं बदलीं आज तक...

नियम बहुत सख्त हैं इस खेल के

सारे नियम जान लेने के बाद

मैदान छोड़ भाग जाते हैं प्रतिभागी

या नियम शिथिल करने का करते आग्रह

इसलिए हम थोडे़ में से भी

बहुत थोड़े से लोग ही

खेल सकते खेल की तरह

इस खेल को

मैदान छोड़ चुके लोग

दूर से हमें खेलते हुए

देखते... अचंभित...

मैदान में जमे सभी प्रतिभागी

बारी बारी से हारते

और उनके चेहरे पर

अद्भुत सुख होता हारने का

दूर से देख रहे लोगों के लिए

यह रोमांच भरा रहस्य और

जादुई चमत्कार होता...

यह एक ऐसा खेल था

जिसमें किसी की जीत नहीं होती

जीतता था खेल का वह सपाट

और बीहड़ मैदान

जो खेल समाप्त होते ही

लहलहा उठता जैसे हरी फसलों से

और फसलों से जैसे झांकते

अनगिनत हंसते विहंसते

मासूम इंसानी चेहरे

हम हारने का सुख भी

सिर्फ हारे हुए

बहुत थोड़े से लोगों के बीच ही

बांट सकते...