Last modified on 17 फ़रवरी 2017, at 10:54

सब कुछ मेरे सामने / ब्रजेश कृष्ण

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:54, 17 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजेश कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=जो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सब कुछ मेरे सामने हुआ

हत्या, चाकू और हत्यारा
अब भी मेरे सामने हैं
मगर मैं चुप हूँ
और छिपने की कोशिश में हूँ
वाशिंग मशीन की ओट में

मैं जानता हूँ कि मैं
कहीं भी छिप सकता हूँ:
टीवी के बग़ल में
टू-इन-वन के पीछे
या नये कालीन के नीचे
मगर मैं डर रहा हूँ
कि मैं पकड़ा जाऊँगा
और घसीटा जाऊँगा अदालत में
जहाँ से हत्यारा
मुस्कराता हुआ वापस आयेगा

मैंने सोचा कि मैं
शहर को दस्तक दूँ
मगर शेयर बाजार के शोर में
कुछ भी तो नहीं सुनता शहर

मैं नयी कमीज़ पहन कर
देखता हूँ सामने इस तरह
कि जैसे वहाँ कुछ नहीं है
न हत्या, न चाकू और न हत्यारा