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अत्याचारी / ब्रजेश कृष्ण

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अब वे क़तई बदसूरत नहीं होते
न ही उनकी आँखें होती हैं खूँखार
न चेहरे पर कोई कटे हुए का निशान

वे इतने सहज होते हैं
कि पहचानना मुश्किल है अलग से
उनके चेहरे पर कहीं नहीं होता
अत्याचारी होने का सुबूत

उन्हें आती है जादूगरी
वे जानते हैं हिंस्र नफ़रत को
खिलखिलाती हँसी के पीछे छिपाना
या अपने गुस्से पर झट चढ़ाना
मुस्कराहटों का मुखौटा

वे बैठते हैं सिंहासन की बगल में
और क़ानून की किताब के ऊपर
होते हैं उनके पैर
उनके हाथ होते हैं बहुत लम्बे
इतने कि दबोच लें पूरे शहर को

मगर वे ऐसा नहीं करते
वे हँसते हैं भद्र भोली और निर्दोष हँसी
और धीरे-धीरे खेलते हैं शहर से
चतुर खिलाड़ी की तरह।