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मैं और मेरा पड़ोसी / ब्रजेश कृष्ण

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बग़ल के मकान से आती है
युवा लड़की के रोने की आवाज़
पिता लगातार डाँटता है उसे
और माँ समझाती हुई-सी रोकती है दोनों को
अक्सर सुनाई देती है तीनों की ऊँची आवाज़

मैं शामिल होना चाहता हूँ इस घटना में
लगता है: जाऊँ
लड़की के सिर पर हाथ रखूँ
पिता से जानूँ उसकी समस्या
उसे समझाऊँ
और ज़रूरत हो तो झिड़क दूँ थोड़ा-सा
माँ से कहूँ कि अब बहुत हो गया
बनाओ सभी के लिए गरमागरम चाय

मगर ऐसा कुछ नहीं होता
मैं टोह लेता हुआ-सा
दबे पाँव आता हूँ सिर्फ़ अपने दरवाजे़ तक
और समझने की असफल कोशिश करता हुआ
लौट जाता हूँ एक स्थायी तटस्थता के साथ

पड़ोस के दुख में शामिल होने की इच्छा
दखलंदाज़ी बन चुकी है कभी की
इसलिए जब भी हम मिलते हैं
पहनते हैं अपनी-अपनी हँसी
हालचाल लेते हैं
और सब ठीक है कहते हुए
तेज़ी से चले जाते हैं अपने-अपने काम पर।