भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिन्दूरी क्षण / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:22, 17 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवबहादुर सिंह भदौरिया |अनुवादक=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आखों के लहरीले क्षण
बाँधों आँचल से।
पपिहे का स्वर सबके हृदय को टटोल गया,
काँप गई डाल-डाल पात-पात डोल गया;
अनछुई छुवन देकर भाग गई पुरवाई,
चम्पे की नरम डाल बार-बार लहराई;
मन के संगीत भरे क्षण बाँधो-
पायल से।
साँसों के तल छूती बजती जो शहनाई,
परिचित छाया-आकृति आँगन तक उड़ आई;
छरहरा कनैर मौज पाकर हिलता जाये,
जैसे लचका खाकर डोला चलता जाये;
अर्पण के सिन्दूरी क्षण बाँधो-
काजल से।
मैं ही दर्शक भी और एक बड़ा मेला हूँ,
बोलती हुई यादों बीच मैं अकेला हूँ;
तन जलता मन जलता, जलता सारा घर है,
दूरी का सूरज तो आपे से बाहर है;
ताप भरे प्राणों के क्षण बाँधों-
बादल से।