भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम भरमाए से लगते हो / दिनेश गौतम

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:43, 18 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGee...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी उँगली नुची हुई़, पर तार छेड़ता हूँ वीणा के,
तुमने बस पीड़ा को देखा औ‘ बौराए से लगते हो।

पीड़ाओं के हर अरण्य में मैं फिरता हूँ निपट अकेला,
दुख की परिभाषा तक पहुँचे, तुम घबराए से लगते हो।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा,
ठोकर एक लगी जो तुमको बस गिर आए से लगते हो।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम का पी-पीकर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो।

प्रखर भानु की अग्नि-रश्मियाँ, मैंने झेलीं खुली देह पर,
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर , कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में तुम भरमाए से लगते हो।