Last modified on 6 मार्च 2017, at 18:21

आग और पानी / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:21, 6 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बिना स्नेह के तो माटी का
दीपक भी न जला करता है।

ओ रे मेघ, गरजनेवालो
आँखें लाल दिखाने वालो
धनुष उठा कर, भौंह चढ़ा कर
पल-पल हमें डराने वालो!
केवल भय से और क्रोध से
ही तो काम नहीं चलता है।1।

ओ रे मेघ, बरसने वालो
वज्र कठोर गिराने वालो
सर-सरिताओं को उकसा कर
भू पर कहर ढहाने वालो!
केवल वज्र - बाढ़ - तूफानों
से ही काम नहीं चलता है।2।

ओ रे मेघ, गगन- पथ वालो
ओ रे मेघ, पवन - रथ वालो
धरती की खातिर सीने में
सूरज - चाँद छिपाने वालो!
ताप - शीत के सम्यक मिश्रण
से ही तो जीवन चलता है।3।

ओ रे मेघ, पिघलने वालो
टप - टप अश्रु बहाने वालो
धरती के घावों को अपने
अश्रु - नीर से धोने वालो!
आँखों में ही आग और
आँखों में ही पानी रहता है।4।

ओ रे मेघ, श्याम तन वालो
ओ रे मेघ, गौर मन वालो
स्वयं धूप सह कर अपने सिर
जग को छाया देने वालो!
मार-प्यार की धूप-छाँह में
ही संससार पला करता है।5।

15.8.76