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प्रेय-गेय-श्रेय / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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हर रचयिता की तरह
मेरी स्वयं की भी
रही यह इच्छा है-
भले ही व्यक्ति हूँ नश्वर मैं
पर बने अभिव्यक्ति मेरी भी
सहज, सरल, अविनश्वर।

जब भरें आँसू किसी की आँख में
आग-सी जलती
अभावों की दुपहरी में;
वह मुझे तब याद कर ले
गुनगुना ले
ले सहारा पंक्तियों की बाँह का
छंद की छतरी उठा
अभिव्यक्तियों की छाँह का।

किंतु लगता है, मुझे मैं
राह से कुछ हट गया हूँ
लोक-जीवन-धार से कुछ कट गया हूँ।

बात करता हूँ
मगर अपनी अधिक मैं
और वह भी बेतुके ढंग से।

चाहता फिर भी-
कि मुझको गुनगुनाएँ लोग
रक्खें याद।

‘प्रेय’ हूँगा
लोग सब अपना बनाएँगे,
‘गेय’ हूँगा
लोग मुझको गुनगुनाएँगे;
‘श्रेय’ हूँगा
तो रहूँगा मैं
सभी की जीभ पर
व्यक्ति मिट
अभिव्यक्ति बन घर-घर।

19.7.77