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अहम् से हम / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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ओ मतवाले, हिम्मत वाल
मनुज, तुझे सौ बार बधाई;
तू ने ही कर-कर संघर्ष
धरा यह रहने योग्य बनाई।

गर्जन करती प्रकृति-शक्तियों
से तू डरा और भय खाया;
पर तूने प्रसन्न करने को
उन्हें प्रार्थना-बल अपनाया।
धीमे-धीमे दूरी भय की
मिटती गई, निकटता आई।1।

शक्ति सूर्य-चंद्रमा-सितारों
की, नक्षत्रों की पहचानीं,
शक्ति अग्नि-जल-वायु-वनस्पति
जीव-जंतुओं की भी जानी।
देव मान सम्मान उन्हें दे
कर, व्यवहार-बुद्धि अपनाई।2।

पैदा किया अन्न खाने को
तन ढकने को वस्त्र बनाए;
रहने को घर, चक्र घूमने,
रक्षा के हित शस्त्र बनाए।
की ईजाद कलाएं जिनसे
जीवन में सुंदरता आई।3।

लक्ष्य रहा-अँधियारे से-
उजियारे की ही ओर बढूँ मैं;
दूर असत से रहूँ हमेशा
सत्पथ पर ही सदा चलूँ मैं।
प्राप्त करूँ, अमरत्व, मृत्यु से
डरूँ न, दृष्टि यही अपनाई।4।

तूने ही उद्घोष किया-”यह
सारी वसुधा ही कुटुम्ब है;
प्राणिमात्र का मंगल सारी
विश्व-शांति का दृढ़ स्तम्भ है।
मैं पृथ्वी का पुत्र, भूमि ही
मेरी माता, मेरी माई“।5।

”खोल रहस्य विश्व के सारे
मैं सब को ब्रह्मांड दिखा दूँ;
जिस धरती पर जनम लिया है
मैं उसको ही स्वर्ग बना दूँ।“
इसी साधना में अपनी तू
ने सारी जिन्दगी बिताई।6।

और धरा पर ही लाने को
स्वर्ग, किया संघर्ष बराबर,
पशु से नर, नर से नारायण
अपने को भी किया उठा कर।
यों भौतिक-आत्मिक विकास की
धार समन्वित सदा बहाई।7।

तू अविरल इस तरह भुजा-बल,
विद्या-बुद्धि-विवेक-शक्ति से
बढ़ा प्रगति की ओर जोड़ता
नाता दृढ़ आपसी प्रकृति से।
धरती-अंतरिक्ष-सागर-तल
सब पर कीर्ति-लता फहराई।8।

किंतु आज क्या हुआ यात्री
क्यों अपने पथ को तू भूला?
अपने हाथों के हथियारों
के फंदों में ही तू झूला?
तू था सर्जक, पर संहारक
बनने की क्यों मन में आई?।9।

अहं जगा क्यों, तुझ में पागल?
यह तो फिर आदिमी प्रकृति है;
अब तक सफर ‘अहम्’ से ‘हम’ की
ओर किया, विकसी संस्कृति है।
क्यांे प्रलयंकर शंकर बनने
की धुन है सवार हो आई?।10।

माना-चलते आए दोनों
सृजन और संहार साथ हैं;
प्रगति-विकास-चित्र-रचना के
ये दोनों ही सधे हाथ हैं।
किंतु अभी तक प्रलय-ताण्डव
की शिव ने ही कला दिखाई!।11।

किंतु आज यदि खुला तीसरा
नेत्र मत्त ताण्डव-नर्तन में;
तू भी नहीं बचेगा पगले
अपने ही इस पागलपन में।
मिट जाएगी तेरी सारी-
अब तक की जो हुई कमाई।12।

पर मुझको विश्वास कि ऐसा
तू न कभी भी होने देगा;
तुझ में जो देवत्व, न तेरे
वह पशुत्व को बढ़ने देगा।
तू पृथ्वी का पुत्र, विवेक
सुधा वसुधा ने तुझे पिलाई।13।

18.4.85